जयपुर। बांदीकुई में सुनीता (परिवर्तित नाम) और जयपुर में सरोज (परिवर्तित नाम) की प्रेग्नेंसी के 26वें हफ्ते में ही डिलीवरी करनी पड़ गई जिसके कारण उन्होंने अत्यंत प्रीमेच्योर शिशु को जन्म दिया। जन्म के समय उनके शिशुओं का वजन सिर्फ 510 ग्राम था और उनके जीवित रहने की संभावना ना के बराबर थी। लेकिन जयपुर के सीके बिरला हॉस्पिटल के अनुभवी डॉक्टर्स एवं एन .आई.सी. यू की टीम ने अथक प्रयास कर न केवल दोनों शिशुओं की जान बचाई, बल्कि उनका वजन 1.7 किलो तक बढ़ा कर उन्हें घर भेजा। हॉस्पिटल के पीडियाट्रिक एंड नियोनेटोलॉजी विभाग के डायरेक्टर डॉ. जेपी दाधीच और एडिशनल डायरेक्टर डॉ. ललिता कनोजिया ने ये दोनों सफल केस किए।
कई समस्याओं का सामना कर शिशुओं को बचाया –
डॉ. जेपी दाधीच ने बताया कि जब दोनों शिशुओं को यहां रैफर किया गया तो हमने उन्हें तुरंत वेंटीलेटर पर लिया क्योंकि उन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही थी। उनके अंग भी पूरी तरह से विकसित नहीं थे। फेफड़ों को विकसित करने के लिए कुछ जीवनरक्षक दवाएं दी गई। शिशुओं को करीब 70 दिन तक अलग अलग तरीकों से रेस्पिरेटरी सपोर्ट दिया गया। उन्होंने बताया कि इस दौरान शिशु की खुराक को भी संतुलित बनाए रखना बड़ी चुनौती थी क्योंकि 26 हफ्ते में शिशु की आंतें पूरी तरह से विकसित नहीं होती हैं इसलिए शुरू में माँ का दूध कम मात्रा में दिया गया एवं उन्हें कई हफ्तों तक नसों के माध्यम से भी खुराक दी गई। कुछ समय बाद शिशुओं को मां का दूध ज्यादा मात्रा में दिया जाने लगा और नसों के माध्यम से दी जाने वाली खुराक धीरे धीरे बंद कर दी गई।
एक और चुनौती शिशुओं का कैल्शियम व फॉस्फोरस सही स्तर पर बना कर रखना एवं उनकी हड्डियों को सुदृढ़ बना कर रखना था | विभिन प्रकार के इंजक्शन व सप्लीमेंट के द्वारा इसे सफलता पूर्वक किया गया| एक शिशु को जांध पर हर्निया भी हुआ जिसे सर्जरी के द्वारा सफलता पूर्वक ठीक किया गया |
खून नहीं बन पा रहा था तो किया गया ट्रांसफ्यूजन –
डॉ. ललिता कनोजिया ने बताया कि इतने कम समय में शिशु के शरीर में अपने आप खून नहीं बन पाता है इसीलिए उन्हें बीच-बीच में कई बार रक्त भी चढ़ाया गया। वे अपना ब्लड प्रेशर भी अपने आप मेंटेन नहीं कर पा रहे थे जिसे डॉक्टर्स ने दवाओं के माध्यम से नियंत्रित किया। इस दौरान शिशुओं की आंखों की जांच करने पर सामने आया कि उनकी आंखों में रैटीनोपैथी ऑफ प्रीमेच्योरिटी नामक बीमारी भी थी जिसका लेजर थैरेपी से इलाज किया गया।
100 दिन के हुए शिशु, तब हुए डिस्चार्ज –
जब दोनों बच्चे 100 दिन के हुए और उनका वजन 1.7 किलो तक आ गया तो उन्हें हॉस्पिटल से डिस्चार्ज कर दिया गया। डिस्चार्ज के वक्त शिशु पूरी तरह से मां का दूध पी रहे थे और अब पूरी तरह से स्वस्थ हैं । डॉक्टर्स ने जानकारी दी कि इतने कम वजन और समय से जल्दी पैदा होने वाले बच्चों के जीवित रहने की संभावना बहुत कम होती है, लेकिन डॉक्टर्स एवं नर्सिंग टीम के अथक प्रयासों के बाद हम शिशुओं को बचाने में सफल रहे।