जयपुर। जवाहर कला केन्द्र की सहभागिता में आयोजित हुआ नटराज महोत्सव संगीत, साहित्य और रंगमंच के रंगों से रंगकर रविवार को विदा हुआ। महोत्सव के आखिरी दिन संवाद प्रवाह में वरिष्ठ कलाकारों ने चर्चा की साथ ही गोपाल आचार्य के निर्देशन में नाटक भोपा भैरूनाथ का मंचन हुआ। छह दिवसीय नटराज महोत्सव में कथक, शास्त्रीय गायन और पांच मनोरंजक व शिक्षापरक नाटक कला प्रेमियों को देखने को मिले। एयू बैंक, रज़ा फाउंडेशन और फोर्थ वॉल सोसाइटी के संयोजन से योगेन्द्र सिंह के निर्देशन में फेस्टिवल ने आकार लिया। मंच संचालन प्रणय भारद्वाज ने किया।
कृष्णायन में रविवार सुबह वरिष्ठ नाट्य निर्देशक गोपाल आचार्य, रुचि भार्गव नरुला, अभिषेक गोस्वामी, विशाल विजय और वरिष्ठ कथक गुरु प्रेरणा श्रीमाली ने विचार रखे। प्रेरणा श्रीमाली ने कहा कि कला कोई विकल्प नहीं है, आज अंकों को इतना महत्व दिया जा रहा है कला में तो 100 फीसदी इंसान कभी नहीं हो सकता इसलिए लगातार ज्ञानार्जन करना जरूरी है।
गोपाल आचार्य ने कहा कि पुराने समय में कोई रंगमंच के विषय में बताने वाला नहीं था युवाओं के पास अब ज्यादा विकल्प है वे अध्ययन करें, निरीक्षण करें। रुचि भार्गव नरुला ने कहा कि आने वाली पीढ़ी को आप विरासत में कुछ देना चाहते है तो पूरी जिंदगी आपको उस विधा के नाम करनी होगी। विशाल विजय ने कहा कि हमेशा यह ध्यान रखने का प्रयास रहता है कि कहानी ऐसी हो जिससे लोग जुड़े। अभिषेक गोस्वामी ने अपने सफर के बारे में बताते हुए कहा कि काम करते-करते महसूस हुआ कि थिएटर में एक पावर है जो जीवन बदल सकता है।
शाम को रंगायन में रसधारा सांस्कृतिक संस्थान, भीलवाड़ा के कलाकारों ने नाट्य निर्देशक गोपाल आचार्य के निर्देशन में ‘भोपा भैरूनाथ’ नाटक का मंचन किया। भोपा भैरूनाथ ग्रामीण भारत के स्त्री जीवन के अनसुने आर्त्तनाद की लोकगाथा है जो गहरे पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा और तिरस्कार से उपजी है। मुख्य पात्र कंकू एक सीधी साधी विवाहिता है। शहर से लौटा उसका पति बंशी और ससुराल वाले उससे बेवजह नाखुश है। कंकू के प्रति बंशी का व्यवहार अमानवीय है। कंकू को ससुराल में सबकी उपेक्षा झेलनी पड़ती है।
कंकू के प्रति परिवार व समाज का दुर्व्यवहार बढ़ता ही जाता है, बंशी उस पर बांझ और डायन होने के आरोप तक लगा देता है। यह व्यवहार कंकू को मनोवैज्ञानिक विक्षोभ के अंधेरों में ले जाता है। उसे प्रेत बाधा या डाकन से ग्रस्त समझा जाने लगता है। प्रचलित लोक विश्वास के अनुसार भैरू नाथ के देवरे पर लाया जाता है, यहां कंकू को स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है जिससे वह अपनी तमाम मानसिक तनावों के साथ फूट पड़ती है। इससे कंकू को आत्मा विश्वास जुटाने में मदद मिलती है और वह सामान्य जीवन की तरफ लौट आती है।
भोपा भैरूनाथ में हम न सिर्फ मानवीय रिश्तों की जटिल संरचना को करीब से देख पाते हैं बल्कि देहाती समाज और उसमें शामिल स्त्री दुनिया की भावभूमि का स्पर्श भी करते हैं| नाटक में राजस्थान के अंचल की भाषाई विशिष्टता, वेशभूषा, मुहावरे, रहन-सहन एवं चरित्रों के आपसी व्यवहार को यथार्थ रूप में बनाए रखा गया जिससे दर्शकों ने सीधा जुड़ाव महसूस किया।