जयपुर। ब्रज की ललित कला के रूप में प्रचलित सांझी श्राद्ध पक्ष में रामगंज बाजार स्थित लाड़लीजी मंदिर में प्रतिदिन नए रूप में निखर-संवर रही है। हर रोज गुलाल और अन्य सूखे रंगों से सांझी बनाई जा रही है। गुरुवार को गोकुल रावल की सुंदर सांझी बनाई गई। भगवान कृष्ण और राधाजी की जन्म भूमि की सांझी देखने बड़ी संख्या में लोग पहुंचे।
मंदिर महंत संजय गोस्वामी के सान्निध्य में शाम को गोकुल-रावल जी से जुड़े पदों का गायन किया गया। शुक्रवार को मथुरा की सांझी बनेगी। यह बड़ी आकार की सांझी होगी। उल्लेखनीय है कि श्राद्ध पक्ष की एकम् से सांझी बननी शुरू होती है। सप्तमी तिथि तक छोटे आकार की सांझी बनाई जाती है, जो अष्टमी तिथि से बड़ी हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि पितृ पक्ष में कुंवारी कन्याएं सांध्य देवी की पूजा घरों के दरवाजे पर सांझी बनाकर पूजा करती थी। अपने पितरों के प्रति श्रद्धा, आदर भाव व्यक्त करने के लिए पितृ पक्ष में गोबर की सांझी बनाए जाने की परम्परा रही है। यह परम्परा केवल दो-चार मंदिरों में ही चल रही है। सुभाष चौक पानो का दरीबा स्थित श्री सरस निकुंज में भी चौकी पर सांझी बनाई जाती है। सांझी कला सांस्कृतिक रूप से धनी ब्रज में प्रचलित अनेक कलाओं में से एक है।
यह बेहद बारीकी से चित्रण करने का है। एक तरह से यह रंगोली और पेटिंग का मिला-जुला रूप है। लाड़ली जी मंदिर में पितृ पक्ष के प्रारंभ से ही रंगों की सांझी बनाई जाती है। सांझी बनाने के बाद सांझी के पद और दोहा गाए गाते हैं। श्री सरस परिकर के प्रवक्ता प्रवीण बड़े भैया ने बताया कि सांझी कला शैली मूलत: राधा-कृष्ण से संबंधित पवित्र ग्रंथों से संबंध रखती है।
सांझी शब्द की उत्पति संस्कृत शब्द संध्या से हुई है। संध्या गोधूलि की वह बेला है, जब गायें गोशालाओं में लौटती हैं। भारतीय धर्म ग्रंथों में किसी भी अनुष्ठान के लिए इसे अत्यंत पवित्र समय माना जाता है।